Tuesday, July 22, 2014

चलते चलते मंजिल मिली

के जिस मंजिल के लिए चले थे हम। वो मंजिल अभी नहीं आई। तन्हा राही चलते हुए इक पड़ाव पर पंहुचा। चारों तरफ सब वैसा ही था जैसा वह चाहता था। इक दिन सवेरे उठा तो सब वहां से जा चुका था। साथ चलने वाले राही अपना सामान बाँध चले गए थे। राही तो इस पड़ाव को मंजिल मान बैठा था। पर राही तो तन्हा था और तन्हा राही की मंजिल पर कोई और कैसे आ सकता है। तो सब अपना सामान बाँध चले गए। बस तभी उस राही ने देखा कि यह तो वह मंजिल थी ही नहीं जिसके लिए वो चला था। बस अगली यात्रा शुरू। साथ ही राही को याद आई रबिन्द्र नाथ टैगोर को गीतांजली जहाँ गुरुदेव अपने ईश को खोजते खोजते जब भी उसके पास पंहुचते हैं; ईश अपनी जगह बदल लेते हैं और उनकी खोज फिर प्रारंभ हो जाती है। बस ऐसे ही तन्हा राही मंजिल पर जब भी पंहुचता है कोई और राह उसे बुला लेती है। उसे तो चलना है और वह चलेगा।

मैं भी चलता हूँ। फिर मिलेंगे।

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