Sunday, July 6, 2014

स्थिर बुद्धि की आवश्यकता

दुःखेष्वनुद्विग्मनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।2/56 (गीता)

भावार्थ: जो दुःख में विचलित न हो तथा सुख में प्रसन्न नहीं होता , जो आसक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त है, वह स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य ही मुनि कहलाता है।

ईश्वर कहते हैं कि मुनि अर्थात मनुष्य जीवन की सर्वोच्च अवस्था केवल उसे ही प्राप्त होती है जो सुख दुःख में सम भाव तथा आसक्ति, भय एवं क्रोध से स्वयं को मुक्त रखता है। मानव जीवन के सर्वोच्च लक्ष्यों में से एक लक्ष्य इस स्थिर बुद्धि को प्राप्त करना भी है। एकाँकी जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण अवस्था वह है जहाँ हम स्थिर बुद्धि हो सभी प्रकार के विघ्नों क़ा सामना करते हैं। जीवन में आशा एवं निराशा दोनों भाव हनिकारक हैँ। केवल कर्म भाव ही एक मात्र सत्य है तथा उसपर स्वयं का आधिकार भी श्रीभगवान गीता में देते हैं। कर्मफल के ऊपर हमारा कोई भी अधिकार नहीं है; यह महत्त्वपूर्ण शिक्षा आज भी उतनी ही आवश्यक है जितनी गीता के समय प्रासंगिक थी।

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।2/57 (गीता)

भावार्थ: इस भौतिक जगत में जो व्यक्ति न तो शुभ की प्राप्ति से हर्षित होता है और न ही दुःख के प्राप्त होने पर उससे घृणा करता हैं, वह पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है।

समस्त ज्ञान इस बात में ही है क़ि सुख एवम दुःख समभाव हैं तथा प्रज्ञा अर्थात बुद्धि के लिए यह समझना आवश्यक है। इस ज्ञान को समझे बिना मनुष्य के लिए जीवन यापन सदा ही एक समस्या रहेगा।

ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।  2/62 (गीता)

भावार्थ: विषयोंका निरंतर चिंतन करनेवाले पुरुषकी विषयोंमें आसक्ति हो जाती है, आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामनामें (विघ्न पडनेसे) क्रोध उत्पन्न होता है।

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥2/63  (गीता)

भावार्थ: क्रोधसे संमोह (मूढभाव) उत्पन्न होता है, संमोहसे स्मृतिभ्रम होता है (भान भूलना), स्मृतिभ्रम से बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्तिका नाश होता है, और बुद्धिनाश होने से सर्वनाश हो जाता है। 

बुद्धि की समाप्ति के साथ ही मनुष्य की चेतना का नाश हो जाता है तथा इसके साथ ही मनुष्य एक न समाप्त होने वाले गर्त में गिर जाता है तथा अंततः स्वयं को समाप्त कर लेता है।

मनुष्य का सर्वोच्च कर्म यह है कि वह स्थिर बुद्धि से कार्य करे एवं आगे बढ़े; इस प्रकार भगवत इच्छा के अनुरूप जीवन सरलता एवँ सुगमता से चलता है।


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