Sunday, November 13, 2011

जगत में बोहत दुखी ज़मींदार


धन जोड़ रहे मुख मोड़ रहे यो मौज उडावै संसार,
जगत में बोहत दुखी ज़मींदार...

आधी रात पहर का तड़का देखै बाहर लिकड़ कै नै,
ढाई गज का पाट्या खंडवा ऊपर गोस्सा धर कै नै,
बाज्जू का कुड़ता पहरया ऊंची धोत्ती कर कै नै,
करै चालण की त्यारी खेत में दोनूं बैल पकड़ कै नै,

ऊपर धूप पड़ै, नीचै धरती तप्पै ..
अर यो बीच में तप्पै ज़मींदार
जगत में बोहत दुखी ज़मींदार...

दोहफारे की रोट्टी ले कै ज़मीदारणी आई ,
गंठा-रोट्टी ल्याई खेत में, वा साग बणावन ना पाई,
अर ज़मींदार नै आपणे करम मैं वें ऐ सोच कै खायी..

तारयाँ की छांह हाळी आया - ना नहाया ना खाया,
थोडी सी वार में जगा दिया वो, सोवण बी ना पाया,
ठा कै कस्सी चाल्या खेत मैं नाक्का-बंधा लाया,
नाक्के मैं आप ढ़ह पडया मरता हुआ जडाया,,
ये सरकारी, ये पटवारी सब सोवैं पैर पसार
जगत मैं बोहत दुखी ज़मींदार...

करी लामणी, पैर गेर लिया जेट्ठ-साढ़ के म्हीने मैं,
ज़मींदार का सारा कुणबा हो रहया दुखी पसीने मैं,
आंधी अर तूफ़ान आग्या बहग्यी रास्य जोहड़ के मेंह..

चार धडी भुरळी के दाणे ईब रहे सैं बाक्की,
लुहार बी न्यू कहण लाग-ग्या जडी थी मन्नै दरांती,
गाड्डी ऊंघी, जुआ बनाया कहण लाग-ग्या खात्ती,
चूहडी अर चमारी दोन्नूं पैर लेवन नै आई सें,

इब भुरली के दाणे चुगरदे नै, जाने यें भी लेग्ये खात्ती-लुहार..
जगत मैं बोहत ए घणा दुखी ज़मींदार...

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